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2021 – पश्चिमी बंगाल व दक्षिण में चुनावों में भाजपा की हार के मायने

 

2021 – पश्चिमी बंगाल व दक्षिण में चुनावों में भाजपा की हार के मायने

         बंगाल के चुनावों में ममता की जीत से विपक्ष, विशेषतः कांग्रेस गदगद है और वे इसे मोदी की बड़ी हार कहते थक नहीं रहे। लेकिन क्या ये वास्तव में भाजपा की हार है? ज़रा सोचिए –

          2016 के चुनावों में भाजपा केवल 10% वोटों के साथ 3 सीटें जीत पाई थी जो 2021 में बढ़ कर 38.13% वोटों के साथ 77 सीटें हो गईं।  तो हार कैसी?

इसे भाजपा की बड़ी हार बताने वालों का तर्क भी सुन लीजिए :

1.     भाजपा की वोट प्रतिशतता में 2019 लोकसभा चुनावों के मुकाबले 2% की कमी हुई |

2.    भाजपा के बड़े नेता चीख चीख कर कह रहे थे कि भाजपा 200 से अधिक सीटों के साथ बहुमत लेगी|

          लोकसभा और विधान सभा चुनावों की मत-प्रतिशतता में अंतर होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों में मुद्दे अलग होते हैं। पo बंगाल में 2014 लोकसभा चुनावों के बाद 2016 विधानसभा चुनावों में भी यह प्रतिशतता 18% से 10% हो गई थी। अतः ये तुलना तर्कसंगत नहीं है|

          जहां तक 200+ सीटों की बात है तो इस प्रकार की घोषणा करना तो चुनावों में आम बात है। हरेक पार्टी इसी प्रकार गाल बजाती है ताकि जनता पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जा सके। यह अलग बात है कि विपक्ष के मन में मोदी का डर इस प्रकार हावी है कि उन्होंने भाजपा नेताओं द्वारा की गई इस प्रकार की बातों को बहुत गंभीरता से लिया और भाजपा के 200 तक न् पहुँच पाने ने उन्हें अति प्रसन्न होने का कारण दे दिया।  वे ये भी भूल गए कि  इन चुनावों में भाजपा को कितना लाभ हुआ !

          हाँ, भाजपा पo बंगाल में सत्ता परिवर्तन करने में विफल रही | इस पर व्याख्याकारों द्वारा कई कारण दिए गए हैं जिन में एक मुख्य कारण है ममता की तुष्टीकरण नीतियों से प्रसन्न मुसलमानों द्वारा एक-मुश्त वोट देना| फुरफुरा शरीफ व भड़काऊ भाई जान भी बंगाली मुसलमानों को नहीं जीत पाए| दूसरी ओर भाजपा हिंदूओं का ध्रुवीकरण करने में विफल रही। जाहिर है बंगाली मुसलमान जानते हैं कि फुरफुरा व ओवैसी सत्ता का विकल्प नहीं दे सकते अतः ममता के साथ रहने में ही भलाई है।

          तमिलनाडु एवं केरल में भाजपा की दशा के बारे में वर्णन करने योग्य कुछ भी नहीं है लेकिन इन दोनों राज्यों और पo बंगाल के चुनावों में भाजपा के लिए एक बड़ा सबक जरूर है। और वो है कि :-

प्रचलित राजनीतिक स्थिति के अनुसार भाजपा पूर्व और दक्षिण में कभी सत्ता नहीं जीत पाएगी|

मेरे इस कथन की प्रसांगिगता समझने के लिए हमें अतीत में झांकना होगा| यह विडंबना ही है कि भारत में भाषा-जनित विभाजन के बीज बोने के लिए कांग्रेस ही उत्तरदायी रही है।

सन 1937 में सी० राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने मद्रास प्रेज़िडन्सी के स्कूलों में हिन्दी अनिवार्य कर दी जिस के विरोध में पूरे मद्रास में भयानक हिन्दी विरोधी आंदोलन हुआ और सरकार को निर्णय वापिस लेना पड़ा। दुर्भाग्यवश हिन्दी-विरोध के बीज यहीं से पनपे, जो कालांतर में उत्तर-भारत विरोध में परिणत हो गए। लेकिन इतिहास से सबक न लेते हुए 1965 में कांग्रेस सरकार ने गलती दोहरा दी और हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित कर दिया| पूरा दक्षिण भारत , विशेषकर तमिलनाडु उग्र रूप से आंदोलित हो उठा। डीएमके सरीखे क्षेत्रीय दलों का प्रादुर्भाव हुआ। इस उत्तर-दक्षिण विभाजन से घबरा के सरकार ने शीघ्र ही हाथ पीछे खींच लिए और त्रि-भाषा फार्मूला लागू कर दिया जिस को अ-हिंदी भाषी राज्यों ने आज तक भी गंभीरता से कार्यान्वित नहीं किया।

आंदोलन तो खत्म हो गया लेकिन भारत का जन-मानस भाषा के आधार पर गंभीर रूप से खंडित हो गया।

भाजपा की समस्या :

उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र को हिन्दी-भाषी क्षेत्र (Hindi Heartland) कहा जाता है जिस में उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड शामिल हैं। महाराष्ट्र को इस श्रेणी में रखने पर कुछ पाठक शायद सहमत न हों क्योंकि शिवसेना अपने मराठी-मानुष के सिद्धांत पर कुछ सीमा तक सफल हुई दिखती है। लेकिन दो तिहाई जनता अभी तक उन से सहमत नहीं हैं।

अ-हिंदी भाषी राज्यों के जन मानस-पटल पर भाजपा की छवि हिन्दी-भाषी क्षेत्र की राजनैतिक दल के रूप में अंकित हो गई है। इस में केवल पंजाब, कर्नाटक और असम ही अपवाद हैं। वहाँ की जनता की इस सोच का लाभ क्षेत्रीय दलों के विभाजनकारी नेता आसानी से उठा लेते हैं।  o बंगाल, तमिलनाडु व केरल ताज़ा उदाहरण हैं।

इसी सोच से ग्रसित हो कर पo बंगाल के हिंदूओं ने भी ममता के इस भ्रामक-प्रचार पर विश्वास कर लिया कि भाजपा ‘बाहरी’ है और इस से बंगाली अस्मिता को खतरा है। यही दुष्प्रचार भाजपा की राह में दक्षिणी और पूर्वी भारत के अन्य राज्यों में रोड़े अटकने के लिए पर्याप्त है।

अतः जब तक भाजपा अपनी इस छवि को बदल नहीं देती तब तक इसे अखिल भारतीय नहीं कहा जा सकता।

भारतीय जनता पार्टी अखिल भारतीय कैसे बने?

पूरे भारत में अपना वर्चस्व बनाने के लिए भाजपा को ‘हिन्दी हृदय-क्षेत्र’ मिथक से उबरना होगा। इस दिशा में अग्रसर होने के लिए कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं।

भाजपा वर्तमान में इस बाधा से निपटने के लिए हिन्दू ध्रुवीकरण की नीति का सहारा ले रही है, क्योंकि इस देश में हिन्दुत्व एकमात्र शक्ति है जो उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक एक सूत्र में बांध सकती है। लेकिन अभी तक क्षेत्रीय अस्मिताओं के समक्ष यह एक क्षीण विकल्प सिद्ध हो रहा है। अतः भाजपा को यह विश्वास दिलाना होगा कि क्षेत्रीय अस्मिताओं को भाजपा से डरने की आवश्यकता नहीं अपितु भाजपा उन अस्मिताओं का ही भाग है।

यहाँ कांग्रेस से सीखा जा सकता है कि उन्होंने किस प्रकार दक्षिण व पूर्व के नेताओं को क्षेत्रीय व केन्द्रीय स्तर तक पनपने दिया। कामराज, नरसिंहा राव, संजीवा रेड्डी, ब्रह्मानन्द रेड्डी, प्रणव मुकर्जी, सिद्धार्थ शंकर रे, मनमोहन सिंह, बेअंत सिंह, ज्ञानी ज़ैल सिंह इत्यादि अहिंदी भाषी क्षेत्रों से संबंधित थे। लेकिन भाजपा के पास ऐसा कुछ नहीं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी व श्री वेंकया नायडू के अतिरिक्त किसी का नाम याद नहीं आता।

o बंगाल के चुनाव में प्रभारी कैलाश विजय वर्गीय बनाए गए जो ‘बाहरी’ हैं। यदि पo बंगाल में कोई सर्वमान्य नेता नहीं था तो प्रभार उड़ीसा या किसी अन्य अहिंदी भाषी क्षेत्र से संबंधित नेता को दिया जाना चाहिए था। ऐसा न  करने का फल तो मिल ही गया।

जाहिर है भाजपा को मुस्लिम वोट नहीं मिल रहे और सत्ता परिवर्तन के लिए काम से काम 60-70% हिंदूओं के वोटों की जरूरत रहेगी। ऐसा तभी संभव है जब भाजपा की ‘हिन्दी-भाषी’ छवि बदलेगी।

Comments

  1. बहुत बढ़िया सर सबका विश्लेषण किसी भी देश को स्वस्थ सत्ता देता है

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